क्यों खिलते फूल के पीछे, कांटे होते ?
क्यों मुस्कुराते चेहरे में गम छुपे होते ?
क्यों असलियत छुपा हर कोई,
घूमता है नकाब पहनकर यहाँ ?
क्यों दायरे सीमित किए सभी ने,
छोटे-छोटे अपने सोच में यहाँ ?

ज़िन्दगी की यहाँ उम्र बहुत छोटी है,
जैसे रेत का ये कोई टीला है,
झोंका तेज़ हवा का आये,
पलभर में ही इन्हे बिखेरता चला जाए।

सो क्यों मन में रंजिशें हैं ?
क्यों मर्यादाओं की ज़ंजीरें,
पैरों को हमारे जकड़ें हैं ?
क्यों कोई डरता है,
मन में छुपे दर्द को अपने,
इज़हार करने के लिए?

क्यों कोई आँखें ढूंढ़ती है,
अनजाने चेहरों की भीड़ में,
किसी अपने को पाने के लिए ?
साथ लम्हाभर बैठ जिसके,
बाँट सकें कुछ तन्हाइयां।
कुछ कदम साथ चल जिसके छोड़ जाएं,
वक़्त की रेत पर चंद निशानियां।

पर क्यों  मिलन की ये घड़ियाँ छोटी होती हैं ?
बातें अधूरी ही रह जाती, वक़्त पूरी हो जाती है।
जब मिलकर बिछड़ना ही था,
तो क्यों दो अनजाने मिलते?
पलभर में ही रिश्ते बन जाते,
और दुसरे ही पल ये टूट जाते।
यादों के चंद आंसू आँखों में छोड़ जाते।

ऐसे अनेकों सवाल ख़यालों में आते,
पर मज़बूरी का आलम ये है ,
की न ये हमें छोड़ जाते ,
और न ही हम इन्हे सुलझा पाते।

समीर कुमार दास

डिप्टी डायरेक्टर,स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज
कीट यूनिवर्सिटी, भूवनेश्वर, ओडिशा